बरगद के विविध नाम :
वट, बड़, बर, अवरोही, जटिल, जटी,ध्रुव, नन्दी, बहुपाद, भण्डीर, भृंगी, मण्डली, यक्षतरु, विटपी, वृक्षानाथ, स्कन्ध रूह, स्कन्धज, क्षीरी।
बरगद के सामान्य परिचय :
इस पूरे विश्व में बरगत का वृक्ष -सबसे अधिक समय तक जीवित रहने वाला (दीर्घतम आयु वाला , अत्यन्त विशालकाय और घनी छाया वाला होता है। यघपि यह भी पीपल – पाकर वर्ग का वृक्ष है, तथापि उनसे यह कई बातों में भिन्न भी है।
बरगद के उत्तपत्ति एवं प्राप्ति -स्थान :
बरगद का वृक्ष पूरे देश में पाया जाता है। खाली जमीनों, नदियों के किनारों, खण्डहरों आदि में यह अपने – आप ही उग आता है लेकिन अनेक लोग इसका पौधा लाकर लागते भी हैं। यह बिना किसी पोषण के स्वयं ही विशालकाय हो जाने में समर्थ होता है। बरगत के संदर्भ में एक विशेष बात यह भी है कि – जब यह वृक्ष बड़ा होता है तो इसकी बड़ी -बड़ी टहनियाँ धरती की ओर झुकने लगती हैं और जटाओं जैसा रूप धारण कर लेती हैं। फिर धीरे -धीरे काफी समय में वे जटायें धरती के निकट आ जाती हैं तो वह जटायें भी एक नए पेड़ के रूप में विकसित होने लगती हैं। कहने का मतलब यह है कि वह जटाये ऊपर से तो पेड़ की टहनियों से जुड़ी हुई हैं और नीचे धरती पर से एक नये पेड़ के रूप में विकसित हो रही हैं। इस प्रकार से अनेक जटाये- अनेक पेड़ो के रु[रूप में विकसित होती हैं लेकिन वह सभी पेड़ पर ऊपर से आपस में जुड़ी हुई रहती हैं यह सब जटाये आपस में जुड़ती रहती हैं इसलिये इस वृक्ष का तना बहुत अधिक मोटा हो जाता है। फिर धीरे -धीरे इन अलग -अलग जटाओं में से भी नई -नई जटायें निकलने लगती हैं और वह सब भी पेड़ों के रूप में विकसित होने लगती हैं। इस प्रकार से यह पेड़ बहुत लम्बें समय तक बढ़ता रहता है – इस प्रकार से निरन्तर लम्बे समय तक लगातार बढ़ते रहने (वृध्दि करते रहने के कारण ही इसका नाम – ‘ब्द’ या ‘बढ़’ हो गया है।
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बरगद के स्वरूप :
बरगद का वृक्ष धीरे -धीरे वृध्दि करते हुये अत्यन्त विशाल हो जाता है। यह चारो ओर वृध्दि करता है। इसकी सबसे बड़ी पहचान यही है कि इस वृक्ष में से धीरे -धीरे जटायें निकलना प्रारम्भ हो जाती हैं जो कि नीचे (धरती की ओर )बढ़ती हैं और फिर धरती तक पहुँचकर नये वृक्ष के रूप में विकसित होने लग जाती हैं। इसके पत्ते – मध्यम आकार के कुछ अण्डाकार होकर गोलाई लिये हुये और गहरे हरे रंग के होते हैं।
बरगद के गुण -धर्म :
बरगद का पत्ता तोड़ने पर उस स्थान से थोड़ा -सा दूध जैसा निकलता हुआ दिखाई देगा – यह दूध अत्यन्त पौष्टिक होता है। इसका सेवन करने से शरीर में बहुत अधिक शक्ति आती है। ‘बरगद’ का वृक्ष – हिन्दू -संस्कृति में अत्यन्त पवित्र एवं पूज्य माना जाता है। सुहागिनी स्त्रियाँ ‘वट -सावित्री’ का पूजन करती हैं, उसके अन्तर्गत ‘बरगद’ के पेड़ की ही पूजा की जाती है। ऐसी मान्यता है कि -प्राचीनकाल में ‘सावित्री’ ने अपने पति ‘सत्यवान’ के प्राणों की ‘यमराज’ से रक्षा की थी तो उस समय वह बरगद के पेड़ के नीचे ही बैठी हुई थी, अतः उसी सन्दर्भ में ही ‘वट -सावित्री का व्रत किया जाता है।
ऐसी भी मान्यता है कि -महाप्रलय के पश्चात जब समस्त पृथ्वी जलमग्न हो जाती है तो -भगवान कृष्ण (विष्णु )बाल – रूप में बरगद वृक्ष के पत्ते पर अकेले ही लेते हुये, क्षीर सागर की तलहटी में अपना अँगूठा चूसते रहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के शयन की बाल – सुलभ छवि का वर्णन एक श्लोक में निम्नलिखित प्रकार से मिलता है
करारविन्देन पदारविन्द, मुखारविन्दे विनिवेशयन्तम।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयनं, बालमुकुन्दं मनसास्मरामि।।
वास्तव में, इस प्रतीक का अर्थ यह है कि- बरगद के वृक्ष का नाश नहीं होता है। कहने का मतलब यह है कि- बरगद का वृक्ष इस धरती पर से पूर्ण रूप से कभी भी समाप्त नहीं हो सकता है और यह सदैव कही -न -कही अवश्य ही प्राप्त होता रहेगा। इस धरती पर कुछ ऐसे भी ‘वट- वृक्ष’ हैं, जो अनादि काल से (बहुत लम्बे समय से )पृथ्वी पर उपस्थित मने जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि यह वृक्ष इतने पुराने समय से उपस्थित हैं कि इनके विषय में यह ज्ञात नहीं है कि यह कब उगे थे। इस प्रकार के बरगत के पेड़ों को होइ – ‘कल्पवृक्ष’ या ‘ अक्षयवट’ कहते हैं। ‘कल्पवृक्ष’ शब्द के दो अर्थ होते हैं – 1. ऐसा वृक्ष जो कि कई कल्पों (समय मापने की सबसे बड़ी ईकाई )से जीवित है, 2 ऐसा वृक्ष जिसके नीचे खड़े होकर कोई भी कल्पना की जाये और वह पूरी हो जाये। इस प्रकार के वृक्षों के सन्दर्भ में दोनों ही अर्थ सही सिद्ध होते हैं। वास्तव में, ऐसी मान्यता है कि इन वृक्षों के नीचे खड़े होकर उसे प्रणाम किया जाये और कोई भी शुभ इच्छा मन में लाई जाये तो वह अवश्य ही पूरी हो जाती है। ‘अक्षयवट’ का अर्थ होता है – जिसका कभी भी क्षय (नाश )न हो पाये। इस प्रकार के वृक्षों के सन्दर्भ में यह अर्थ भी बिल्कुल सही सिद्ध होता है।
प्रयाग (इलाहाबाद )और उज्जैन में ऐसे अनेक बरगत के पेड़ हैं जिन्हें ‘कल्पवृक्ष’ या ‘अक्षयवट’ कहा जा सकता है।
बरगद केऔषधीय प्रयोग :
दन्त -रोगों के उपचार के लिये -वट की जटा (हरी ताजी )लाकर, उसको दातुन की भाँति प्रयोग करें। प्रतिदिन ऐसा करते रहने से समस्त दन्त -रोग मिट जायेंगे।
मुख -रोगों के उपचार के लिये -रविपुष्य के दिन बरगत की जटा (बरोह )ले आयें। उसे सुखाकर कूट लें और कपड़छन करके रख लें। यह चूर्ण दाँतों पर भली -भाँति मलने से अनेक प्रकार के मुख -रोग दूर हो जाते हैं।
जटा -जुट बनाने के लिये -त्यागी, सन्यासी, साधु लोग सन्यास धारण करते समय अपने केशों (सिर के बालों)को बढ़ाने लगते हैं और फिर उनकी जटा -जुट बनाते हैं। इसके केशों में बरगद से निकलने वाला दूध लगाया जाता है क्योंकि इससे केश स्थिर बने रहते हैं और उनमे कोई विकार नहीं पनप पाता है।
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